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जंग-ए-आज़ादी के इकलौते शहीद पत्रकार मौलवी बाकर अली, बिहार उर्दू मीडिया फोरम मनाएगा शहादत दिवस

पटना (जागता हिंदुस्तान) इतिहास गवाह है कि पत्रकारिता ने दुनिया की बड़ी बड़ी क्रांतियों को जन्म दिया. कई शासकों का तख्ता पलट किया. जब देश में स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था उस वक्त भारतीय भाषाओं में उर्दू ही एकमात्र ऐसी थी जो देश के कोने-कोने में समझी और बोली जाती थी.

उर्दू शायरों, साहित्यकारों और लेखकों ने भी देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझा व उसका निर्वाह  किया. आजादी के इस सफर मे उर्दू ने पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को अपने आप में ओढ़ रखा है. स्वतंत्रता संग्राम में उर्दू पत्रकारिता के योगदान को कभी भूलाया नहीं जा सकता है. उसमें मौलवी बाकर अली उर्दू के इकलौते सहाफी है, जिन्होंने वतन केलिए शहादत कुबूल किया. अंग्रेजों ने उन्हें तोप से उड़ा दिया. बिहार उर्दू मीडिया फोरम 16 सितंबर को उनकी शहादत दिवस मनायेगा. इस दिन सेमिनार का आयोजन कर नई नस्ल के सहाफियों को उनकी जांबाज पत्रकारिता से रुबरू कराया जाएगा.बताया जाएगा कि जंग ए आजादी में उर्दू सहाफत की भूमिका क्या थी और मौलवी बाकर अली ने अपनी कलम से कैसे फिरंगियों की चूलें हिला दी थीं.

1857 की क्रांति और उर्दू पत्रकारिता
यह सही है कि 1857 क्रांति की बुनियाद सिपाहियों ने डाली थी,लेकिन इस आंदोलन में लेखक, कवि, शायर पत्रकार भी कूद पड़े थे. उनके खून के छींटे से इंकलाब आज भी दिल्ली के लाल दरवाजे पर लिखा हुआ है. 1857 की क्रांति पहली क्रांति थी.इस में शहीद मंगल पाण्डेय से लेकर रानी लक्ष्मी बाई तक की वीर गाथाएं पटी पड़ी है. इन सबके बीच एक नाम जिसने 1857 की क्रांति का अलख जगाया था, उसमें एक प्रमुख मौलवी बाकर अली का भी था.वह इस लड़ाई में शहीद होने वाले पहले पत्रकार थे. दीगर बात है कि उनकी गाथा कम लोग जानते हैं.  मौलवी बाकर अली की तहरीर से अंग्रेज इतने खौफ खाते थे कि उन्हें सूली पर नहीं चढ़ाया,बल्कि तोप से उड़ा दिया. मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी का यह शेर मौलवी बाकर अली पर सटीक बैठता है.“खीचों न कमानों को, न तलवार निकालो. जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो..

मौलवी बाकर अली ने देशभक्ति की खातिर अपनी जान गंवा दिया ।उनकी शहादत के बाद उर्दू सहाफत ने इंकलाब बरपा हुअा. इस बगावती कलम में सबसे ज्यादा किसी ने इन फिरंगियों को परेशान और हलाकान किया तो वह थे शहीद बाकर अली.
जिन्होंने अपनी सहाफत से गुलामी के खिलाफ एक फिजा बनाकर अंग्रेजी हुकूमत की बुनियादें हिला दी. मौलवी की कलम वाकई में तोपों के बराबर मार करती थी. उनके लेखों मेे आजाद भारत की गूंज थी, जिसके कारण ईस्ट इंडिया कंपनी इनको अपने खास दुश्मनों में शामिल करती थी.

कौन थे मौलवी बाकर अली ?
1790 में जन्मेे मौलवी बाकर अली का संबंध दिल्ली के एक इज््जदार घराने से था.पिता मौलाना मोहम्मद अकबर इस्लामिक स्कॉलर थे. बाकर अली ने घर पर ही दीनी तालीम हासिल की.बाद में दिल्ली के जाने-माने विद्वान मियां अब्दुल रज्जाक के सानिध्य में उन्होंने आगे की शिक्षा पाई. 1825 में उनका देहली कालेज में दाखिला हुआ और पढ़ाई मुकम्मल कर वह दिल्ली कॉलेज में फारसी के शिक्षक बने. कुछ समय बाद अपनी शिक्षा की बदौलत सरकारी महकमों में कई वर्षो तक जिम्मेदार पदों  पर रहे लेकिन मन कहीं और लगा था. अंग्रेजी हुकूमत का क्रूर शासक रवैया दिल में बैचेनी पैदा कर रहा था.आखिरकार अपनी बागी सोच और वालिद के कहने पर सरकारी पद से इस्तीफा दे दिया. सन 1836 मे बिट्रिश हुकुमत द्वारा पास प्रेस ऐक्ट के दौरान मौलवी बाकर अली ने दिल्ली का सबसे पहला और भारतीय उपमहाद्विप का दूसरा उर्दु अखबार ‘‘देहली उर्दू‘‘ साप्ताहिक शुरू किया, 22 मार्च 1822 को कलकत्ता से निकलने वाला ‘‘जाम ए जहां नुमा‘‘ अखबार भारतीय उपमहाद्विप का पहला उर्दु अखबार था.

इसके अलावा उस समय हिन्दुस्तान में निकलने वाले सुलतानुल अखबार, सिराजुल अखबार और सादिकुल अखबार फारसी जुबान के अखबार थे. उस समय अखबार निकालना मुशकिल भरा काम था . मगर मौलवी बाकर अली ने साप्ताहिक उर्दू अखबार प्रेस खड़ा किया, यह समाचार पत्र लगभग 21 वर्षों तक जीवित रहा, जिसमें इसका नाम भी दो बार बदला गया. इसकी कीमत महीने के हिसाब से उस समय 2 रु थी. इसके अलावा 1843 में मौलवी बाकर अली ने एक धार्मिक पत्रिका मजहर-ए-हक भी प्रकाशित की थी जो 1848 तक चली. मौलवी बाकर अली ने जिस मकान से अपना ‘‘देहली उर्दू साप्ताहिक‘‘ समाचार पत्र प्रकाशित किया था वह दरगाहे पंजा शरीफ (कश्मीरी गेट) से बिल्कुल सटा था. आज भी मौजूद है. इस अखबार ने देश के विभिन्न भागों में अपने प्रतिनिधि भी नियुक्त किए थे. अपने अखबार की शूरुआत करते ही मौलवी बाकर अली को अपनी सोच व सरकार की नीतियों को उजागर करने का एक प्लेटफार्म मिला.

हालाकि शूरुआती दिनो मे ‘‘देहली उर्दू साप्ताहिक‘‘ ने अंग्रेजी हूकूमत की ज्यादा खिलाफत नहीं क,ी लेकिन 1857 तक मौलवी बाकर अली बिट्रिश सरकार के तीखे आलोचक बन चुके थे, उन्होंने ना सिर्फ ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर लिखा, दिल्ली और आसपास ब्रिटिश हुकूमत की नीतियों के खिलाफ आजादी का जनमत तैयार करने और समाज के सभी वर्गो को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने को भी आवाज बुलंद किया.

देहली उर्दू अखबार उस समय हिन्दू -मुस्लिम एकता का प्रबल पैरोकार भी था. उसने कई मौको पर अंग्रेजों की सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाली चालों को बेनकाब कर हिंदुओं और मुसलमानों को खबरदार कर एकजुटता पैदा की. इनकी बागी कलम अंग्रेजों के जुल्मांे सितम का मुकाबला लंबे वक्त तक नहीं कर सकी.
14 सितंबर 1857 को मौलवी बाकर अली को गिरफ्तार कर लिया गया. इन पर अंग्रेजों के विरूद्ध भावनाएं भड़काने, अवाम को शासन के खिलाफ उकसाने, विद्रोहियों की मदद करने के अलावा कई तरह के झूठे-सच्चे मुकदमे लगाकर राजद्रोह का मुजरिम ठहराया गया.मौलवी बाकर अली का अंग्रेजों पर खौफ ऐसा था कि गिरफ्तारी के महज दो दिनों के भीतर न्यायिक प्रकिया को पूरा कर लिया गया. 16 सितंबर 1857 को अंग्रेज अधिकारी मेजर हडसन ने सजा-ए-मौत सुनाई. कुछ इतिहास कारों का कहना है कि तोप के मुंह पर मौलवी बाकर अली को बांध कर दाग दिया गया.

याद करेगा उर्दू मीडिया फोरम
उर्दू मीडिया फोरम ने जश्न ए आजादी के मौके पर बैठक कर मौलवी बाकर अली की शहादत को याद करने का फैसला किया है. 16 सितंबर को पटना में आयोजित कार्यक्रम में बाकर अली की उर्दू सहाफत पर रौशनी डाली जाएगी. उर्दू सहाफत और लेखनी से जुड़ी बिहार की हस्तियों को लेक्चर के लिए आमंत्रित किया जा रहा है.
इस आयोजन में उर्दू मीडिया फोरम के महासचिव और उर्दू के अजीम सहाफी रेहान गनी पेश-पेश हैं.फोरम के अध्यक्ष मुफ्ती सनाउल होदा कासमी ने कहा कि गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी को याद करना और मुल्क की हिफाजत हमारा फर्ज है. उर्दू मीडिया फोरम की यह पहल स्वागतयोग्य है.उर्दू सहाफत के मौजूदा संकट के दौर बेबाक, बेखौफ पत्रकारों की कुर्बानियों को याद करने से एक अच्छी रिवायत कायम होगी।

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